लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
अध्याय 37
प्रभु सेवक बड़े
उत्साही आदमी थे।
उनके हाथ से
सेवक-दल में
एक नई सजीवता
का संचार हुआ।
संख्या दिन-दिन
बढ़ने लगी। जो
लोग शिथिल और
उदासीन हो रहे
थे, फिर नए
जोश से काम
करने लगे। प्रभु
सेवक की सज्जनता
और सहृदयता सभी
को मोहित कर
लेती थी। इसके
साथ ही अब
उनके चरित्रा में
वहर् कर्तव्यनिष्ठा दिखाई
देती थी, जिसकी
उन्हें स्वयं आशा न
थी। सेवक-दल
में प्राय: सभी
लोग शिक्षित थे,
सभी विचारशील। वे
कार्य को अग्रसर
करने के लिए
किसी नए विधान
की आयोजना करना
चाहते थे। वह
अशिक्षित सिपाहियों की सेना
न थी, जो
नायक की आज्ञा
को तौलती है,
तर्क-वितर्क करती
है, और जब
तक कायल न
हो जाए, उसे
मानने को तैयार
नहीं होती। प्रभु
सेवक ने बड़ी
बुध्दिमत्ता से इस
दुस्तर कार्य को निभाना
शुरू किया।
अब तक इस
संस्था का कार्य
क्षेत्रा सामाजिक था। मेलों-ठेलों में यात्रिायों
की सहायता, बाढ़-बूड़े में पीड़ितों
का उध्दार, सूखे-झूरे में
विपत्तिा के मारे
हुओं का कष्ट-निवारण, ये ही
इनके मुख्य विषय
थे। प्रभुसेवक ने
इसका कार्य-क्षेत्रा
विस्तृत कर दिया,
इसको राजनीतिक रूप
दे दिया। यद्यपि
उन्होंने कोई नया
प्रस्ताव न किया,
किसी परिवर्तन की
चर्चा तक न
की, पर धीरे-धीरे उनके
असर से नए
भावों का संचार
होने लगा।
प्रभु सेवक बहुत
सहृदय आदमी थे,
पर किसी को
गरीबों पर अत्याचार
करते देखकर उनकी
सहृदयता हिंसात्मक हो जाती
थी।
किसी सिपाही को घसियारों
की घास छीनते
देखकर वह तुरंत
घसियारा की ओर
से लड़ने पर
तैयार हो जाते
थे। दैविक आघातों
से जनता की
रक्षा करना उन्हें
निरर्थक-सा जान
पड़ता था। सबलों
के अत्याचार पर
ही उनकी खास
निगाह रहती थी।
रिश्वतखोर कर्मचारियों पर,जालिम
जमींदारों पर, स्वार्थी
अधिाकारियों पर वह
सदैव ताक लगाए
रहते थे। इसका
फल यह हुआ
कि थोड़े ही
दिनों में इस
संस्था की धाक
बैठ गई। उसका
दफ्तर निर्बलों और
दु:खित जनों
का आश्रय बन
गया। प्रभु सेवक
निर्बलों को प्रतिकार
के लिए उत्तोजित
करते रहते थे।
उनका कथन था
कि जब तक
जनता स्वयं अपनी
रक्षा करना न
सीखेगी, ईश्वर भी उसे
अत्याचार से नहीं
बचा सकता।
हमें सबसे पहले
आत्मसम्मान की रक्षा
करनी चाहिए। हम
कायर और दब्बू
हो गए हैं,
अभिमान और हानि
चुपके से सह
लेते हैं, ऐसे
प्राणियों को तो
स्वर्ग में भी
सुख नहीं प्राप्त
हो सकता। जरूरत
है कि हम
निर्भीक और साहसी
बनें, संकटों का
सामना करें, मरना
सीखें। जब तक
हमें मरना न
आएगा, जीना भी
न आएगा। प्रभु
सेवक के लिए
दीनों की रक्षा
करते हुए गोली
का निशाना बन
जाना इससे कहीं
आसान था कि
वह किसी रोगी
के सिरहाने बैठ
पंखा झले, या
अकाल-पीड़ितों को
अन्न और द्रव्य
बाँटता फिरे। उसके सहयोगियों
को भी इस
साहसिक सेवा में
अधिाक उत्साह था।
कुछ लोग तो
इससे भी आगे
बढ़ जाना चाहते
थे। उनका विचार
था कि प्रजा
में असंतोष उत्पन्न
करना भी सेवकों
का मुख्यर् कत्ताव्य
है। इंद्रदत्ता इस
सम्प्रदाय का अगुआ
था, और उसे
शांत करने में
प्रभु सेवक को
बड़ी चतुराई से
काम लेना पड़ता
था।
लेकिन ज्यों-ज्यों सेवकों
की कीर्ति फैलने
लगी, उन पर
अधिाकारियों का संदेह
भी बढ़ने लगा।
अब कुँवर साहब
डरे कि कहीं
सरकार इस संस्था
का दमन न
कर दे। कुछ
दिनों में यह
अफवाह भी गर्म
हुई कि अधिाकारी
वर्ग में कुँवर
साहब की रियासत
जब्त करने का
विचार किया जा
रहा है। कुँवर
साहब निर्भीक पुरुष
थे, पर यह
अफवाह सुनकर उनका
आसन भी डोल
गया। वह ऐश्वर्य
का सुख नहीं
भोगना चाहते थे,
लेकिन ऐश्वर्य की
ममता का त्याग
न कर सकते
थे। उनको परोपकार
में उससे कहीं
अधिाक आनंद आता
था, जितना भोग-विलास में। परोपकार
में सम्मान था,
गौरव था; वह
सम्मान न रहा,
तो जीने में
मजा ही क्या
रहेगा! वह प्रभु
सेवक को बार-बार समझाते-भाई, जरा
समझ-बूझकर काम
करो। अधिाकारियों से
बचकर चलो। ऐसे
काम करो ही
क्यों जिनसे अधिाकारियों
को तुम्हारे ऊपर
संदेह हो। तुम्हारे
लिए परोपकार का
क्षेत्रा क्या कम
है कि राजनीति
के झगड़े में
पड़ो। लेकिन प्रभु
सेवक उनके परामर्श
की जरा भी
परवा न करते-धामकी देते-इस्तीफा
दे दूँगा। हमें
अधिाकारियों की क्या
परवा! वे जो
चाहते हैं, करते
हैं, हमसे कुछ
नहीं पूछते, फिर
हम क्यों उनका
रुख देखकर काम
करें? हम अपने
निश्चित मार्ग से विचलित
न होंगे। अधिाकारियों
की जो इच्छा
हो, करें। आत्मसम्मान
खोकर संस्था को
जीवित ही रखा,
तो क्या! उनका
रुख देकर काम
करने का आशय
तो यही है
कि हम खाएँ,
मुकदमे लड़ें, एक दूसरे
का बुरा चेतें
और पड़े-पड़े
सोएँ। हमारे और
शासकों के उद्देश्यों
में परस्पर विरोधा
है। जहाँ हमारा
हित है, वहीं
उनको शंका है,
और ऐसी दशा
में उनका संशय
स्वाभाविक है। अगर
हम लोग इस
भाँति डरते रहेंगे,
तो हमारा होना-न-होना
दोनों बराबर है।
एक दिन दोनों
आदमियों में वाद-विवाद की नौबत
आ गई। बंदोबस्त
के अफसरों ने
किसी प्रांत में
भूमि-कर में
मनमानी वृध्दि कर दी
थी। काउंसिलों, समाचार-पत्रों और राजनीतिक
सभाओं में इस
वृध्दि का विरोधा
किया जा रहा
था, पर कर-विभाग पर कुछ
असर न होता
था। प्रभु सेवक
की राय थी,
हमें जाकर असामियों
से कहना चाहिए
कि साल-भर
तक जमीन परती
पड़ी रहने दें।
कुँवर साहब कहते
थे कि यह
तो खुल्लम-खुल्ला
अधिाकारियों से रार
मोल लेना है।